मै रोज की तरह जब अपने कमरे से बाहर निकला तो देखा सूरज कुछ जल्दी -जल्दी सफेद -नीले बादलो में छुपा जा रहा था। चिड़िया जो मेरे घर के बाहर लगे नीम के पेड़ पर शाम होते ही चहचहाने लगती ,वो भी आज शायद अपने घोसलो में चुपचाप बैठीं थी। और वो भोली सी आँखों और काले रंग वाली मेरी दोस्त जो प्रेम से अपना सर मेरी बाहों में रख देती और पूरे दिन की व्यथा बिना बोले ही आँखों आँखों से सुना देती आज वो भी नहीं थी॥ मैंने अपने कमरे के बाहर नीम के चबूतरे पर बैठकर थोड़ी देर उसका इंतजार किया लेकिन वो नहीं आयी ,आखिर इंतजार का भी समय होता है।,इंतजार कि भी सीमा होती है।, इंतजार एक सब्र होता है।, इंतजार वो नहीं कर सकता जिसके भीतर सब्र न हो मै भी अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा ये सोंचकर कि अब वो नहीं आयेगी ॥ रोज की भाँति आज तीसरा दिन था मैंने आज भी उसी तरह उसका इंतजार किया जब वो नहीं आयी तो मन में तरह तरह के प्रश्न उठने लगे। असल में मैं इस शहर में अपनी पढ़ाई के सिलसिले में रह रहा था मैं अपनी दिनचर्या के मुताबिक प्रतिदिन शाम को थोड़ी देर पार्क में टहलने जाया करता था। बड़ा सुकून मिलता था प्रकति की गोदी में टहलने से एक दिन इसी बीच मैने देखा मेरे कमरे के बगल में एक चील दो पँछियों के बच्चों को अपने पंजो में दबोचना चाह रहा था बच्चे शायद अपने घोसले से नीचे गिर आये थे। मेरी नजरों से ये देखा ना गया कुछ पल के लिये मैंने सोचा, कैसा संसार है ये ? सब खा जाना चाहते हैं अपने से कमजोर को, सब हक छींनना चाहतें है अपने से कमजोर का। लेकिन तब तक मास्तिस्क ने मेरे हाथों को आदेश दिया पत्थर फेंकने को उस ओर जिस ओर वो चील बेसहारा नन्हे पँछी को उठा कर ले जाना चाह रहा था पँछी की जान बची वो घायल था। थोड़ा देखभाल और उपचार के बाद मैंने उसे खाने को कुछ दाने दिये उस वक्त उसने कुछ ना खाया ना पिया शायद वो डर रहा था ! तीन चार दिन के उपक्रम के बाद वह मुझे जानने पहचानने लगा ,विस्वाश करने लगा, शायद तभी तो मेरे द्वरा दिये गये दानों को चुंगना भी शुरु कर दिया था॥ मुझे अच्छा लगता था ऐसा परोपकारी कार्य करके॥ कुछ दिनों बाद उस नन्हे पँछी ने अपना घोंसला ऊपर नीम के पौधे पर स्थानांतरित कर लिया और अपने नये परिवार के साथ रहने लगा मै भी अपनी रोज की पढ़ाई और कोचिंग में व्यस्त हो गया॥ मुझे प्रकृति के साथ रहना बहुत पसंद है मुझे अच्छा लगता है प्रकृति सुन्दरता के बीच अपना समय बिताना इन्ही कुछ कारणों से मेरा लगाव शहरों की अपेक्षा गांव से अधिक है मैंने कुछ सज्जन लोगो को देखा है पशुओं से प्रेम करते हुये उनसे बातें करते हुये लेकिन जैसे जैसे जमाना आधुनिक होता जा रहा है लोगो में स्वार्थ भाव अधिक विकसित होता जा रहा है मैने देखा है और देख रह हूँ लोग गायों को तब तक अपने घरों में रखतें हैं जब तक उनसे दूध मिलता है फिर उन्हे ऐसे ही छोड़ देते हैं गलियों में,सड़कों पर॥ कुछ उन्हे मारते हैं ,कुछ सड़ी चीजें खिला देते है कुछ सज्जन लोग भोजन भी देते है कुछ को नगर निगम वाले ले जाते है इसी बीच मेरी मुलाकात भोली अंखो वाली काली गाय से हुई ये दिखने में ठीक वैसे ही थी जैसी हमारी रानी॥ हमारे गाँवों में प्रथा थी बिटिया को लोग रानी कहकर प्यार से बुलाते हैं जब हमारी गाय को बछिया हुई तो पिताजी ने उसका भी नाम रानी रखा॥ अब उसे सब लोग रानी कहकर बुलाने लगे उसकी आदत थी उसको जितनी बार रानी बुलाओ बड़े प्रेम से सर उठाकर ऐसा सुनती जैसे एक जानवर के भीतर सच में मनुजता आ गयी हो॥बेहद नेक और सीधी॥ आज जैसे ही मै अपने कमरे से बाहर निकला तो भोली सी काली गाय मेरे दरवाजे के पास मिली जैसे ही मैंने उसके सिर पर हाथ रखा तो उसके आंखो से आंशू गिरने लगे॥मुझे कुछ समझ नही आया मैंने उसे दोपहर का बचा भोजन खिला दिया अब यह रोज का क्रियकलाप बन चुका था॥मै अपने कमरे से बाहर निकलता वो मिलती बिना बोले अपनी आंखो से सब कुछ कह देती ,थोड़ी देर रुकती और फिर चली जती॥ अब कुछ दिनो से मै भी उसके आने का इंतजार करने लगा था उसके आने पर ही मै बाहर जाता ,क्योंकी मुझे उसका दुख जो सुनना था! दुख साझा करने के लिये॥मुझे लगता था इसे सुनने से,हाथ फेर देने से,पुचकार देने से शायद इसका दुख कम हो जाये अब ये मेरी दोस्त थी। उस जगह, जहाँ मै अपनो से दूर था एक नये शहर मे॥ खूब गर्मी थी मैंने उसके लिये पीने के पानी का बंदोबस्त किया एक बर्तन मे ,मेरी लालसा थी वो आये, पानी देखे,पिये और खुश होकर मेरी बाहों मे सिर रखकर भोली आंखो से कुछ बोले,लेकिन वो नही आयी॥ शायद गर्मी और भूंख ने ही उसे निगल लिया ? ये प्रश्न बार बार मेरे मन मे आता और फिर ऐसा हो ही नही सकता,.......................मन ऐसा भी कहता।पर सच्चाई तो यही थी कि गर्मी और भूंख ने उसके प्राण छीन लिये॥ उसके जिसने अपने दूध से जाने कितने परिवारो को पाला और पोषित किया॥ आज चौथे दिन भी मैंने उसका इंतजार किया कुछ मुहल्ले के लोगो से काली गाय के बारे मे पूछा,कोई सुराग नही मिला,मन को संत्वना देते हुये कि वो आयेगी॥ तभी मुझे आभास हुआ की किसी ने मुझे आवाज दी।पीछे देखा तो वो आ रही थी,उसकी आंखे मुझे वैसे ही भोली निगहो देख रही थी,लेकिन झपकते हुये नही, बिल्कुल अचेत,बाहो मे नही ,नगर निगम वाली ट्राली पर॥मै अवाक सा देखता रह गया ,कुछ दूर पीछा किया॥लेकिन अब वो बहुत दूर जा चुकी थी जहाँ से वापस आना अब असम्भव था।भगवान से उसके आत्मा की शांती की भीख मांगकर मै जब कमरे की ओर आ रहा था तब वो मुझे एक क्षण के लिये पानी वाले बर्तन के समीप दिखी वापस देखने पर नही मिली,शायद जाते जाते वो मुझे इस तरह उदास नही चाह रही थी।वो धन्य थी॥ उसके जाने की सूचना पछी और सूरज को चार दिन पहले से ही थी। मुझे लगा सूरज से कहूँ तूने इतनी गर्मी क्यो बरसाई? लेकिन गलती सूरज की नही ,गलती थी इस संसार मे रहने वाले लोगो की,हमारे समाज की,और सरकार की ॥ _अनुज सिंह चंद्रौल
Mst likha hai bro
ReplyDeletethank you dost
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ReplyDeleteWahhh wahhhh bahut sundar.
ReplyDeleteThank you😍
DeleteThank you to all of you 😍
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteधन्यवाद☺☺
Deleteअप्रतिम।।
ReplyDeleteलेखन ऐसा मानो सब प्रत्यक्ष घटित हो रहा हो।